आचार्य श्रीराम शर्मा >> मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष मस्तिष्क प्रत्यक्ष कल्पवृक्षश्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुदेव की अमृतवाणी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जो चाहें, सो सहज ही पाएँ
अलाबामा (अमेरिका) राज्य के गाड्स डेन नगर के पास एक गांव में रहने वाले
एक हाईस्कूल के विद्यार्थी को अपने मित्र को चिढ़ाने की सूझी। कोयल बोलती
है तो उसको चिढ़ाने के लिए गाँवों के बच्चे उसी की ध्वनि और लहजे में
स्वयं भी कुहू करते और बड़े प्रसन्न होते हैं। इसी विनोद के भाव में इस
विद्यार्थी ने भी अपने मित्र को चिढ़ाना प्रारंभ किया; पर उसकी प्रक्रिया
अन्य लोगों से न केवल भिन्न थी, अपितु विलक्षण भी थी कि जिसे अतींद्रिय
क्षमता ही कहा जा सकता है।
फ्रैंक रेन्स नामक इस विद्यार्थी की विशेषता यह थी कि वह अपने साथी के कुछ भी बोलने के साथ ही हूबहू वही शब्द उसी लहजे में और बिना एक क्षण का विलंब किये, उसके अक्षरों की ताल बैठाते हुए (मानो उसके मन में भी उस समय ही भाव उठ रहे हैं, जो वह दूसरा साथी व्यक्त कर रहा था) बोलने लगता था।
अतींद्रिय क्षमताओं की जाँच करने वाले कई विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों ने उनकी जाँच की तो वह यह नहीं बता पाए कि इसका रहस्य क्या है, स्वयं फ्रैंक रेन्स भी नहीं जानता था। उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह जब पढ़ता था, तभी एक बार के अध्ययन से पूरी पुस्तक अक्षरशः कंठस्थ कर लेता था। एक बार परीक्षा में एक ऐसा प्रश्न आया, जिसे वह नहीं जानता था। उस समय इसी क्षमता ने साथ दिया। एक-दूसरे विद्यार्थी के मुख की भावभंगिमा को देख-देखकर उसने जो कुछ लिखा था, वही स्वयं भी परीक्षा पुस्तिका में लिख दिया।
विद्यार्थी जीवन से ही उन्हें अपनी इस अतींद्रिय क्षमता का सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ा और शीघ्र ही वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तक पहुँच गये। जिसने भी उनका कार्यक्रम देखा वह आश्चर्यचकित रह गया।
फ्रैंक रेन्स की विशेषता यह है कि वह केवल अमेरिकी भाषा जानते हुए भी दुनिया भर की तमाम भाषाओं में बोलने वालों के साथ वही अक्षर बिलकुल वैसे ही उच्चारण और भावभंगिमा के साथ दोहरा देते थे। एक बार प्रसिद्ध हास्य अभिनेता जेरी ल्यूविर ने एक कार्यक्रम रखा। इसमें जिना लोलो ब्रिगिडा नामक एक स्त्री ने भाग लिया। ब्रिगिडा विश्व की अनेक भाषाएँ बोल लेती थी, उन्होंने पहले तो एक-एक भाषा के वाक्य बोले, जिन्हें रेन्स ने उनके उच्चारण के साथ ही दोहरा दिया। तब फिर वे खिचड़ी बोलने लगीं, जिसमें थोड़ी इंगलिश थी; हिंदी रसियन, जर्मन और फ्रेंच भी। आश्चर्य कि खिचड़ी भाषा के खिचड़ी वाक्य-विन्यास को भी उन्होंने ज्यों का त्यों दोहरा दिया।
एक बार किसी दर्शक ने कह दिया कि रेन्स बोलने वाले के ओठों की हरकत से बोले जाने वाले शब्द का अनुमान करके उच्चारण करता है। यद्यपि रेन्स बोलने वाले के इतना साथ बोलता था कि अनुमान की कल्पना ही नहीं की जा सकती, फिर भी उन्होंने तब से अपना मुँह उल्टी दिशा में करके बोलना प्रारंभ कर दिया।
फ्रैंक रेन्स का आहार-विहार बहुत शुद्ध, प्रकृति सात्त्विक और विचार बड़े धार्मिक थे, वे स्वयं यह बात मानते थे कि यह सब जो वह दिखा देते हैं, वह एकाएक नहीं हो जाता वरन पहले मैं उसकी तैयारी करता हूँ। यदि मेरा आहार-विहार कभी अशुद्ध हो गया तो मैं इस तरह का प्रदर्शन करने से पहले आवश्यक शुद्धि के लिए साधना करता हूँ।
एक बार न्यूयार्क में उनकी अद्भुत परीक्षा ली गई। एक डॉक्टर नियुक्त किया गया। उसने लगभग 20 पेज का एक वैज्ञानिक लेख तैयार किया, जिसमें चिकित्सा शास्त्र के ऐसे कठिन शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया गया था, जिनकी सर्वसाधारण को जानकारी तो दूर, बड़े-बड़े डॉक्टर तक शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते थे। डॉक्टर एक कोने में खड़े हुए और फ्रैंक रेन्स दूसरे कोने में। रेन्स के सामने टेप रिकार्डर था और मुँह डॉक्टर से उल्टी दिशा में, अर्थात् वह डॉक्टर स्पीच पढ़ता था और रेन्स साथ-साथ दोहराते गए। पीछे टेप रिकार्डर सुना गया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि साधारण शिक्षा वाले रेन्स ने वह कठिन उच्चारण भी कितने साफ और स्पष्ट ढंग से कर दिये हैं। लोग मनुष्य ‘‘मन’’ की विलक्षण शक्ति पर आश्चर्यचकित रह गये।
टेलीफोन और टेलीविजन पर भी अपने कार्यक्रम प्रदर्शित करके फ्रैंक रेन्स ने उपरोक्त बातों की सत्यता प्रमाणित कर दी। टेलीफोन पर चाहे कितनी दूर कोई व्यक्ति खड़ा हो, चाहे जिस भाषा में बोलता जाये, हाथ में टेलीफोन पकड़े फ्रैंक रेन्स भी उसके साथ ही वही उच्चारण दोहराते चले जाते हैं। यहाँ तो ओंठ क्या उस व्यक्ति का शरीर ही हजारों मील दूर होता था। यही बात टेलीविजन पर भी होती थी। सन् 1980 तक उनके टेलीविजन पर लगभग 25 कार्यक्रम हो चुके थे। जेरी ल्यूविस जॉनसन और जैक पार के साथ उन्होंने ‘आई हैव गॉट ए सीक्रेट’ और ‘टु नाइट’ कार्यक्रमों में भी भाग लेकर लोगों को आश्चर्यचकित किया, पर उनकी इस आश्चर्यजनक क्षमता का उपयोग मात्र मनोरंजन हो गया था। उसका उपयोग किसी बड़े कार्य में होना चाहिए था, जैसा कि फ्रैंक रेन्स स्वयं कहते थे कि मेरे भीतर से ऐसी आवाज आया करती है कि आगे एक ऐसा युग आ रहा है, जब लोगों में इस तरह की अतींद्रिय क्षमताएँ सामान्य हो जाएँगी। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे उसी दिशा में काम करना चाहिए। यह प्रेरणा क्यों उठती है ? कहाँ से आती है ? यह वे स्वयं नहीं जानते।
इस तरह की क्षमताएँ मानसिक शक्तियों के विकास से ही प्राप्त हो सकती हैं। साधना, तप, अनुष्ठान आदि द्वारा मनश्चेतना को उसी स्तर पर पहुंचाया जाता है, जहाँ से कि वह इस तरह की अतींद्रिय कही जाने वाली क्षमताएँ प्राप्त कर सके, पर वे वस्तुतः होती मन की ही शक्तियाँ हैं।
सामान्यतः यह समझा जाता है कि मस्तिष्क सोचने का कार्य करता है। निर्वाह की आवश्यकताएँ जुटाने तथा प्रस्तुत कठिनाइयों का समाधान ढूँढना ही उसका काम है। उसकी ज्ञान आकांक्षा इसी प्रयोजन के लिए उपयोगी जानकारी प्राप्त करने तक सीमित हो सकती है।
उसके पीछे अचेतन मन की परत है, वह रक्त संचार, हृदय की धड़कन, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा जाग्रति जैसी अनवरत शारीरिक क्रिया प्रक्रियाओं का स्वसंचालित विधि-विधान बनाये रहता है।
आदतें अचेतन मन में जमा रहती हैं और आवश्यकता पूर्ति के लिए चेतन मन काम करता रहता है। मोटे तौर पर मस्तिष्क का कार्य क्षेत्र यहीं समाप्त हो जाना चाहिए।
इससे आगे जादू से बने संसार का अस्तित्व सामने आता है। जिसकी अनुभूति तो होती है, पर कारण और सिद्धांत समझ में नहीं आता। इस प्रकार की अनुभूतियाँ प्रायः अतींद्रिय मन चेतना की होती हैं। भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं का परिचय, भविष्य का पूर्वाभास, दूरवर्ती लोगों के साथ वैचारिक आदान-प्रदान, अदृश्य आत्माओं के साथ संबंध, पूर्वजन्मों, की स्मृति, चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियाँ, शाप-वरदान जैसी घटनाएँ अतींद्रिय अनुभूतियाँ मानी जाती हैं। व्यक्तित्व का स्तर भी इसी उपचेतना की परतों में अंतर्निहित होता है। विज्ञानी इसे पैरासाइकिक तत्त्व कहते हैं। इसके संबंध में इन दिनों जिस आधार पर शोध कार्य चल रहा है, उसे परामनोविज्ञान पैरासाइकालॉजी नाम दिया गया है।
स्थूल और कारण शरीरों के बीच एक सूक्ष्म शरीर भी है। त्रिविध शरीरों में एक स्थूल है, जिसमें ज्ञानेंद्रियों का, कर्मेंद्रियों का समावेश है। सूक्ष्म को मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की चार परतों में विभक्त किया गया है। मनोविज्ञानी इसे चेतन और अचेतन मन में विभक्त करते हैं और उसके कई-कई खंड करके, कई-कई तरह से उस क्षेत्र की स्थिति को समझाने का प्रयत्न करते हैं। कारण शरीर को अंतरात्मा कहा जाता है। संवेदनाएँ एवं आस्थाएँ उसी क्षेत्र में जमा होती हैं। योगी लोग प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा इसी क्षेत्र को जाग्रत् एवं परिष्कृत करने का प्रयास करते हैं।
अतींद्रिय क्षमता सूक्ष्म शरीर का-मस्तिष्कीय चेतना का विषय है। इंद्रिय शक्ति के आधार पर ही प्रायः मनुष्य अपनी जानकारियाँ प्राप्त करता है और उस प्रयास में जितना कुछ मिल पाता है, उसी से काम चलता है। मस्तिष्क ब्रह्मांडीय चेतना से संपर्क बना सकने और उस क्षेत्र की जानकारियाँ प्राप्त कर सकने में समर्थ है। अविकसित स्थिति में इसे ज्ञान संपादन के लिए इंद्रिय उपकारों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वे जितनी जानकारियाँ दे पाती हैं उतना ही व्यक्ति का ज्ञान वैभव संभव होता है, पर जब मस्तिष्कीय चेतना का वर्तमान अथवा पिछले प्रयत्नों अपेक्षाकृत अधिक विकास हो जाता है तो फिर बिना इंद्रियों की सहायता के ही समीपवर्ती एवं दूरवर्ती घटनाक्रम की जानकारी होने लगती है। इतना ही नहीं ब्रह्मांडव्यापी ज्ञान-विज्ञान की असंख्य धाराओं से अपना संपर्क बन जाता है। प्रयत्नपूर्वक थोड़ा-सा धीरे-धीरे ही कमाया जा सकता है, पर यदि किसी अक्षय रत्न भंडार पर अधिकार प्राप्त हो जाए तो अनायास ही धन कुबेर बना जा सकता है। अंररिक्ष के अंतराल में असंख्य मनीषियों की ज्ञान संपदा बिखरी पड़ी है, विकसित सूक्ष्म शरीर उस ज्ञान भंडार से संबंध मिला सकता है और अपनी जानकारियों का इतना विस्तार स्वल्प समय में ही कर सकता है, जितना सामान्य प्रयत्नों से संभव नहीं हो सकता।
फ्रैंक रेन्स नामक इस विद्यार्थी की विशेषता यह थी कि वह अपने साथी के कुछ भी बोलने के साथ ही हूबहू वही शब्द उसी लहजे में और बिना एक क्षण का विलंब किये, उसके अक्षरों की ताल बैठाते हुए (मानो उसके मन में भी उस समय ही भाव उठ रहे हैं, जो वह दूसरा साथी व्यक्त कर रहा था) बोलने लगता था।
अतींद्रिय क्षमताओं की जाँच करने वाले कई विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों ने उनकी जाँच की तो वह यह नहीं बता पाए कि इसका रहस्य क्या है, स्वयं फ्रैंक रेन्स भी नहीं जानता था। उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह जब पढ़ता था, तभी एक बार के अध्ययन से पूरी पुस्तक अक्षरशः कंठस्थ कर लेता था। एक बार परीक्षा में एक ऐसा प्रश्न आया, जिसे वह नहीं जानता था। उस समय इसी क्षमता ने साथ दिया। एक-दूसरे विद्यार्थी के मुख की भावभंगिमा को देख-देखकर उसने जो कुछ लिखा था, वही स्वयं भी परीक्षा पुस्तिका में लिख दिया।
विद्यार्थी जीवन से ही उन्हें अपनी इस अतींद्रिय क्षमता का सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ा और शीघ्र ही वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तक पहुँच गये। जिसने भी उनका कार्यक्रम देखा वह आश्चर्यचकित रह गया।
फ्रैंक रेन्स की विशेषता यह है कि वह केवल अमेरिकी भाषा जानते हुए भी दुनिया भर की तमाम भाषाओं में बोलने वालों के साथ वही अक्षर बिलकुल वैसे ही उच्चारण और भावभंगिमा के साथ दोहरा देते थे। एक बार प्रसिद्ध हास्य अभिनेता जेरी ल्यूविर ने एक कार्यक्रम रखा। इसमें जिना लोलो ब्रिगिडा नामक एक स्त्री ने भाग लिया। ब्रिगिडा विश्व की अनेक भाषाएँ बोल लेती थी, उन्होंने पहले तो एक-एक भाषा के वाक्य बोले, जिन्हें रेन्स ने उनके उच्चारण के साथ ही दोहरा दिया। तब फिर वे खिचड़ी बोलने लगीं, जिसमें थोड़ी इंगलिश थी; हिंदी रसियन, जर्मन और फ्रेंच भी। आश्चर्य कि खिचड़ी भाषा के खिचड़ी वाक्य-विन्यास को भी उन्होंने ज्यों का त्यों दोहरा दिया।
एक बार किसी दर्शक ने कह दिया कि रेन्स बोलने वाले के ओठों की हरकत से बोले जाने वाले शब्द का अनुमान करके उच्चारण करता है। यद्यपि रेन्स बोलने वाले के इतना साथ बोलता था कि अनुमान की कल्पना ही नहीं की जा सकती, फिर भी उन्होंने तब से अपना मुँह उल्टी दिशा में करके बोलना प्रारंभ कर दिया।
फ्रैंक रेन्स का आहार-विहार बहुत शुद्ध, प्रकृति सात्त्विक और विचार बड़े धार्मिक थे, वे स्वयं यह बात मानते थे कि यह सब जो वह दिखा देते हैं, वह एकाएक नहीं हो जाता वरन पहले मैं उसकी तैयारी करता हूँ। यदि मेरा आहार-विहार कभी अशुद्ध हो गया तो मैं इस तरह का प्रदर्शन करने से पहले आवश्यक शुद्धि के लिए साधना करता हूँ।
एक बार न्यूयार्क में उनकी अद्भुत परीक्षा ली गई। एक डॉक्टर नियुक्त किया गया। उसने लगभग 20 पेज का एक वैज्ञानिक लेख तैयार किया, जिसमें चिकित्सा शास्त्र के ऐसे कठिन शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया गया था, जिनकी सर्वसाधारण को जानकारी तो दूर, बड़े-बड़े डॉक्टर तक शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते थे। डॉक्टर एक कोने में खड़े हुए और फ्रैंक रेन्स दूसरे कोने में। रेन्स के सामने टेप रिकार्डर था और मुँह डॉक्टर से उल्टी दिशा में, अर्थात् वह डॉक्टर स्पीच पढ़ता था और रेन्स साथ-साथ दोहराते गए। पीछे टेप रिकार्डर सुना गया तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि साधारण शिक्षा वाले रेन्स ने वह कठिन उच्चारण भी कितने साफ और स्पष्ट ढंग से कर दिये हैं। लोग मनुष्य ‘‘मन’’ की विलक्षण शक्ति पर आश्चर्यचकित रह गये।
टेलीफोन और टेलीविजन पर भी अपने कार्यक्रम प्रदर्शित करके फ्रैंक रेन्स ने उपरोक्त बातों की सत्यता प्रमाणित कर दी। टेलीफोन पर चाहे कितनी दूर कोई व्यक्ति खड़ा हो, चाहे जिस भाषा में बोलता जाये, हाथ में टेलीफोन पकड़े फ्रैंक रेन्स भी उसके साथ ही वही उच्चारण दोहराते चले जाते हैं। यहाँ तो ओंठ क्या उस व्यक्ति का शरीर ही हजारों मील दूर होता था। यही बात टेलीविजन पर भी होती थी। सन् 1980 तक उनके टेलीविजन पर लगभग 25 कार्यक्रम हो चुके थे। जेरी ल्यूविस जॉनसन और जैक पार के साथ उन्होंने ‘आई हैव गॉट ए सीक्रेट’ और ‘टु नाइट’ कार्यक्रमों में भी भाग लेकर लोगों को आश्चर्यचकित किया, पर उनकी इस आश्चर्यजनक क्षमता का उपयोग मात्र मनोरंजन हो गया था। उसका उपयोग किसी बड़े कार्य में होना चाहिए था, जैसा कि फ्रैंक रेन्स स्वयं कहते थे कि मेरे भीतर से ऐसी आवाज आया करती है कि आगे एक ऐसा युग आ रहा है, जब लोगों में इस तरह की अतींद्रिय क्षमताएँ सामान्य हो जाएँगी। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे उसी दिशा में काम करना चाहिए। यह प्रेरणा क्यों उठती है ? कहाँ से आती है ? यह वे स्वयं नहीं जानते।
इस तरह की क्षमताएँ मानसिक शक्तियों के विकास से ही प्राप्त हो सकती हैं। साधना, तप, अनुष्ठान आदि द्वारा मनश्चेतना को उसी स्तर पर पहुंचाया जाता है, जहाँ से कि वह इस तरह की अतींद्रिय कही जाने वाली क्षमताएँ प्राप्त कर सके, पर वे वस्तुतः होती मन की ही शक्तियाँ हैं।
सामान्यतः यह समझा जाता है कि मस्तिष्क सोचने का कार्य करता है। निर्वाह की आवश्यकताएँ जुटाने तथा प्रस्तुत कठिनाइयों का समाधान ढूँढना ही उसका काम है। उसकी ज्ञान आकांक्षा इसी प्रयोजन के लिए उपयोगी जानकारी प्राप्त करने तक सीमित हो सकती है।
उसके पीछे अचेतन मन की परत है, वह रक्त संचार, हृदय की धड़कन, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा जाग्रति जैसी अनवरत शारीरिक क्रिया प्रक्रियाओं का स्वसंचालित विधि-विधान बनाये रहता है।
आदतें अचेतन मन में जमा रहती हैं और आवश्यकता पूर्ति के लिए चेतन मन काम करता रहता है। मोटे तौर पर मस्तिष्क का कार्य क्षेत्र यहीं समाप्त हो जाना चाहिए।
इससे आगे जादू से बने संसार का अस्तित्व सामने आता है। जिसकी अनुभूति तो होती है, पर कारण और सिद्धांत समझ में नहीं आता। इस प्रकार की अनुभूतियाँ प्रायः अतींद्रिय मन चेतना की होती हैं। भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं का परिचय, भविष्य का पूर्वाभास, दूरवर्ती लोगों के साथ वैचारिक आदान-प्रदान, अदृश्य आत्माओं के साथ संबंध, पूर्वजन्मों, की स्मृति, चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियाँ, शाप-वरदान जैसी घटनाएँ अतींद्रिय अनुभूतियाँ मानी जाती हैं। व्यक्तित्व का स्तर भी इसी उपचेतना की परतों में अंतर्निहित होता है। विज्ञानी इसे पैरासाइकिक तत्त्व कहते हैं। इसके संबंध में इन दिनों जिस आधार पर शोध कार्य चल रहा है, उसे परामनोविज्ञान पैरासाइकालॉजी नाम दिया गया है।
स्थूल और कारण शरीरों के बीच एक सूक्ष्म शरीर भी है। त्रिविध शरीरों में एक स्थूल है, जिसमें ज्ञानेंद्रियों का, कर्मेंद्रियों का समावेश है। सूक्ष्म को मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की चार परतों में विभक्त किया गया है। मनोविज्ञानी इसे चेतन और अचेतन मन में विभक्त करते हैं और उसके कई-कई खंड करके, कई-कई तरह से उस क्षेत्र की स्थिति को समझाने का प्रयत्न करते हैं। कारण शरीर को अंतरात्मा कहा जाता है। संवेदनाएँ एवं आस्थाएँ उसी क्षेत्र में जमा होती हैं। योगी लोग प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा इसी क्षेत्र को जाग्रत् एवं परिष्कृत करने का प्रयास करते हैं।
अतींद्रिय क्षमता सूक्ष्म शरीर का-मस्तिष्कीय चेतना का विषय है। इंद्रिय शक्ति के आधार पर ही प्रायः मनुष्य अपनी जानकारियाँ प्राप्त करता है और उस प्रयास में जितना कुछ मिल पाता है, उसी से काम चलता है। मस्तिष्क ब्रह्मांडीय चेतना से संपर्क बना सकने और उस क्षेत्र की जानकारियाँ प्राप्त कर सकने में समर्थ है। अविकसित स्थिति में इसे ज्ञान संपादन के लिए इंद्रिय उपकारों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वे जितनी जानकारियाँ दे पाती हैं उतना ही व्यक्ति का ज्ञान वैभव संभव होता है, पर जब मस्तिष्कीय चेतना का वर्तमान अथवा पिछले प्रयत्नों अपेक्षाकृत अधिक विकास हो जाता है तो फिर बिना इंद्रियों की सहायता के ही समीपवर्ती एवं दूरवर्ती घटनाक्रम की जानकारी होने लगती है। इतना ही नहीं ब्रह्मांडव्यापी ज्ञान-विज्ञान की असंख्य धाराओं से अपना संपर्क बन जाता है। प्रयत्नपूर्वक थोड़ा-सा धीरे-धीरे ही कमाया जा सकता है, पर यदि किसी अक्षय रत्न भंडार पर अधिकार प्राप्त हो जाए तो अनायास ही धन कुबेर बना जा सकता है। अंररिक्ष के अंतराल में असंख्य मनीषियों की ज्ञान संपदा बिखरी पड़ी है, विकसित सूक्ष्म शरीर उस ज्ञान भंडार से संबंध मिला सकता है और अपनी जानकारियों का इतना विस्तार स्वल्प समय में ही कर सकता है, जितना सामान्य प्रयत्नों से संभव नहीं हो सकता।
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